जीवन कथाएँ >> रंग कितने संग मेरे रंग कितने संग मेरेमोहनदास नैमिशराय
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आत्मकथा लिखना अपनी ही भावनाओं को उद्वेलित करना है। अपने ही ज़ख़्मों को कुरेदने जैसा है। जीवन के खुरदरे यथार्थ से रू-ब-रू होना है। ऐसे खुरदरे यथार्थ से, जिसे हममें से अधिकांश याद करना नहीं चाहते। इसलिए कि हमारे अतीत में बेचैनी और अभावों का हिसाब-किताब होता है। हम पीड़ित और शोषित समाज से रहे हैं। उत्पीड़न सहते-सहते बचपन से जवान होते हैं। जैसे गाँव-क़स्बों से नगरों-महानगरों की तरफ़ आते हैं। हमें लगता है कि अब हम जवान हो गये हैं। हम घेटोनुमा गाँव से छुटकारा पाकर शहरों में आ गये हैं। हम उत्पीड़न से बच जायेंगे। ऐसा बहुत-से दलित साथियों का भी मानना रहा है, लेकिन जल्द ही उनका यह भ्रम टूट जाता है।
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